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________________ जैनपदसंग्रह। भविक प्रति, इच्छा नाहिं करंदा । राग दोप मद मोह नहीं नहि,क्रोध लोभ छल छंदा ॥ मैं नेमिजी० ॥३॥ जाको जस कहि सके न क्योंही, इंद फनिंद नरिन्दा। सुमरन भजन सार है द्यानत, और वात सव धंदा ।। मैं नेमिजी० ॥४॥ २५। मैं निज आतम कब ध्याऊंगा ॥ टेक ॥ रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊंगा । मैं निज. ॥१॥ मन वच काय जोग थिर करके, ज्ञान समाधि लगाऊंगा। कव हाँ खिपंकश्रेणि चढ़ि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊंगा । मैं निज० ॥२॥ चारों करम घातिया खैय करि, परमातम पद पाऊंगा । ज्ञान दरश सुख वल भंडारा, चार अघाति वहाऊंगा ॥ मैं निज. ॥३॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानंद कहा-. ऊंगा । धानत यह सम्पति जब पाऊं, बहुरि न जगमें आऊंगा ॥ मैं निज०॥४॥ २६ । अरहंत सुमर मन बावरे! ॥ टेक ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे॥ अरहंतः॥१॥ नरभव पाय अकारथ खोवै, विपय भोग जु वढ़ाव रे। १ मैं । २ क्षपकश्रेणी । ३ नाशकर । ४ यश, कीर्ति ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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