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________________ ६६ जनपदसागर प्रथमभागखादन, बीरज अतुल अनंत ॥ मैं तुम० ॥१॥ रागशेष-विभाव नाश भए, परम समरसी संत । पद देवाधिदेव पाए किय, दोष क्षुधादिक अंत ॥ मैं तुम०॥२॥ भूषण वसन शस्त्र कामादिक, करनविकार अनंत । तिन विन तुम परमौदारिक तन, मुद्रा सम शोभंत ॥ मैं तुम०॥३॥ तुम बानीतें धर्मतीर्थ जग,-माहि त्रिकाल चलंत। निज कल्याण हेतु इंद्रादिक, तुम पद सेव करत ॥मैं तुम०॥४॥तुम गुन अनुभवतें निज-परगुन, दर्शत अगम अचिंत । भागचंद निजरूप प्राप्ति.अब, पावें हम भगवंत॥मैं तुम०॥५॥ - , ५४ । राग दीपचंदी। कीजिए कृपा मोहि दीजिए खपद, मैं तो थांको ही सरन लीनो हे नाथजी ॥ टेक ॥ दूर करो इह मोह शत्रुको, फिरत सदा जो मेरे साथ जी। कीजिए॥१॥ तुमरे वचन कर्मगद मोचन, संजीवन औषधी काथजी॥ कीजिए १। इंद्रियोंके विकारः । -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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