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________________ हज़री पद - संग्रह | ५२ | भावना | प्रभूपै यह वरदान सुपाऊं, फिर जंगकीच वीच नहि आऊं ॥ टेक ॥ जल गंधाक्षत, पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुंदर ल्याऊं । आनंद जनक- कनक-भाजन धरि, अर्ध अनर्घ बनाय चढाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ १॥ आगमके अभ्यासमांहि पुनि, चित एकाग्र सदीन लगाऊं । संतनिकी संगति तजि में, अंत कहूं इक छिन नहिं जाऊं || प्रभूपै ० ॥२॥ दोपवाद मैं मौन रहूं फिर, पुण्यपुरुषगुन निशदिन गाऊं । मिष्ट स्पष्ट सबहिसों भापों, वीतराग निज भाव वढाऊं ॥ प्रभूपैः ॥ '३ ॥ वाहिजदृष्टि चके अंतर, परमानंद स्वरूप लखाऊं । भागचंद शिव प्राप्त न जोलों, 'तोलों तुम चरणांबुज ध्याऊं ॥ प्रभूपै० ॥४॥ ( ५३ ) . ६५ मैं तुम शरनलियो, तुम सांचे प्रभु अरहंत । मैं तुम० ॥ टेक ॥ तुमरे दर्शन - ज्ञान- मुकर मैंसकल ज्ञेय झलकंत | अतुल निराकुल सुख आ १ यातो अपना विरद भूल जावो या मेरी अर्ज़ सुनलो । fe
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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