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________________ . हजूरी पद-संग्रहः ।. :१७ पद-दातारी ॥ त्रिभुवन०॥६॥ महिमा कहत न लहत पार सुर-गुरुहकी बुधिहारी और कहै किम ? दौल चहै इम, देहु दशा तुम धारी॥ त्रिभुवन० ॥७॥ (२८) जिन छवि तेरी यह, धन जगतारन, जिन० ॥ टेक ॥ मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न, शमदम कारन भ्रमतमवारन ।। जिनछवि०॥१॥ जाकी प्रभुताकी महिमाते, सुरै-अधीशता लागत सार न ॥ अवलोकत भवि-थोक मोख-मग, चरत वरत निज-निधि उरधारन । जिनछवि० ॥२॥ जत भजत अघतो को अचरज,समकित पावन भावन-कारन । तासु सेवफल एव चहत नित, दालत जाके सुगुनउचारन ।। जिनछवि०॥३॥ (२९) . आज मैं परम पदारथ पायो, प्रभुचरनन १ जटा वा वल्कल । २ फूलोंकी माला -1३ बन्न । ४ इन्द्रपणा। ५ आँपके पूजनेसे यदि पाप भाग जाते हैं तो इसमें कौनसा आश्चर्य है। .
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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