SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनपदसागर प्रथमभाग (२७) । त्रिभुवन आनंदकारी जिन छवि, थारी नैन निहारी॥त्रिभुवनाटिका ज्ञान अपूरव उदय भयो अब, यादिनकी बलिहारी । मो उर मोद वढयो . जुनाथ तस, कथा न जात उचारी ॥ त्रिभुवन ॥१॥ सुन धनघोर मोर-मुद-ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी । जाहि लखत झट झरतमोह-रज, होय सो भवि अविकारी ॥ त्रिभुवन ॥२॥ जाकी सुंदरता सुपुरंदरे,-शोभ-लजावन - 'हारी । निज अनुभूति-सुधा छवि पुलकित, वदन मदन-अरि-हारी । त्रिभुवन० ॥३॥ शूल दुकूल न बाला माला, मुनि-मन-मोद-प्रसारी । अरुन 'न नैनन सैन भ्रमै न न, बंक न लंके सम्हारी ॥ 'त्रिभुवन ॥४॥ तातै विधि-विभाव-क्रोधादि, न लखियत हे जगतारी । पूजत पातकपुंज पला. वत, ध्यावत शिव-विस्तारी॥ त्रिभुवन ॥५॥ कामधेनु सुरतरु चिंतामणि, इकभव सुख-करतारी । तुमछवि लखत मोदत.जो सुर, सोतुम .. १ । मयूरका हर्ष । २ इंद्रकी शोभाः। ३ त्रिशूल। ४ वस्त्र । ५कमर।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy