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________________ ४३. हजूरी पद-संग्रह । जुत नरामरेखचरनुत, विर्युतरागादिमद दुरितहारी | जॉस क्रमपास भ्रमनाश पंचास्य मृग,. वत्सकरि प्रीतिकी रीति धारी ॥ निरखि०||२||. ध्यानद माहि विधिदारु प्रजराहिं सिर, केश शुभ, जिमि धुआं दिशि विर्थारी | फसे जगपंक जनरंक तिन काढने, किधौं जगनाह यह वांह सारी. ॥ निरखि० ॥ ३ ॥ तैहाटकवरन वसन विन आभरन, खरे थिर ज्यों शिखर, मेरुकारी ।. . दौलको दैन शिवधौले जगमाल जे, तिन्हें कर जोर वंदन हमारी । निरख० ॥ ४ ॥ ( २४ ) यौनकृपानपानि गहिनाशी त्रेसठ प्रकृति अरी । शेष पचासी लागरही है ज्यों जेवरी जरी 4. mad १ मनुष्य देव विद्याधरोंसे वंदनीय । २ रहित रागादि मदसे । ३ पापको हरनेवाले । ४ जिसके चरणोंके पास । ५ सिंह । ६ ध्यानरूपी अग्निमें । ७ कर्मरूपी ईंधन । ८ विस्तारा है । १ पसारी । १० तपाये हुये सोनेकांसा रंग । ११ सुमेरु पर्वतका शिखर । १२ मुक्तिरूपी महल । १३ जगनके शिरोमणि । १४ ध्यानरूपी तलवार हाथमें लेकरि । १५ घातिया कर्मोंकी १६ श्रघातिया कर्मोकी पचासी प्रकृतियां । 1 1
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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