SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनपदसागर. प्रथमभांग॥ध्याना टेक॥दुठ अनंग-मातंग-भंगकर, है: प्रबलंग-हेरी। जा-पदभक्ति भक्तजन दुख-दावानलमेघ झरी ॥ ध्यान ॥ १॥ नवल धवल पले सोहै कलम, क्षुधतृपव्यापिटरी। हलत न पलक अलेक नख वढतन,गति नभांहि करी। ध्यान० ॥३॥ जा-विन-शरन मरन जर घर घर, महा असात भरी। दौल तास पद दास होत है वास-मुक्ति नगरी ॥ध्या.. ३॥ ___(२५) दीठा भागनतें जिन-पाला, मोहनाशनेवाला। दीठााटेक॥ शुभग निसंक रागविन यातें, वसन न आयुध वाला ॥ दीठा०॥९॥ जास ज्ञानमें. जुगपत भासत, सकल पदारथमाला ॥ दीठा० '॥२॥ निज़में लीन हीन इच्छा पर, हितमित ११ कामदेवरूपी हाथीको मारनेवाले । २ प्राबल सिंह । ३ मांस रुधिर । ४ शरीरमें। ५ केश.नख । ६ जरा बुढापा । ७ सम्यग्दृष्टीसे. लगाकर बारहवें गुणस्थान तकके जीव जिन कहलाते हैं उनका रक्षक। स्त्री।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy