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________________ ४२. जैनपदसागर प्रथमभाग पशुसम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निर खनकी, भवभव देव हमारी ॥ प्यारी० ॥ ३ ॥ ( २२ ) निरखि सुख पायो, जिनमुखचंद ॥ नि० ॥ टेक ॥ मोह-महातम नाश भयो है, उरे - अंबुज प्रफुलायो । ताप नश्यो बढि उदधि- अनंद || निरखि० ॥ १॥ चकवी कुमति विछुरि अति वि लखे, आतमसुधास्त्रैवायो । शिथिल भए सब विधिगणफेद || निरखि० ॥ २ ॥ विकट भवोद धिको तट निकट्यो, अघतरुमूल नशायो । दौल लह्यो अब स्वपद स्वछंद ॥ निरखि० ॥३॥ . ( २३ ) निरखि सखि ऋषिनको ईश यह ऋषभ जिन, परखिके खपर परसोंजें छारी। नैन नाशाधरि मैनें विनशायकर, मौनजुत खास दिशिसुरभिकारी ॥ निरखि० ॥ १ ॥ घरासम शांति . १. हृदयरूपी कमल । २ आत्मारूपी अमृत भरने लगा । ३ पर परनति । ४ कामदेव । ५ दिशाओंको सुगंधित करने वाली
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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