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________________ . . . हजूरी पद-संग्रह।, सहज यथा तमहरनघाम ॥मेरी॥४॥ तुमगुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गणी निजबुद्धि खाम । दौलतणी अज्ञान परनती, हे जगत्राता. कर विराम ।। मेरी०॥५॥ (१८) मोहि तारोजी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजगं त्रिकालमै । मोहिगाटेक।। मैं भव उदधि परयो दुख भोग्यो, सो दुख जात कयो ना। जामन मरन अनंत तणो तुम, जाननमाहि छिप्यो ना ॥ मोहि० ॥१॥ विषय-विरसरस विषम भख्यो मैं, चख्यो न ज्ञान सलोनी । मेरी भूल मोहि दुख देवे, कर्म-निमित्त भलो ना ॥ मोहि० ॥२॥ तुम पद-कंज धरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यो ना । सुरगुरुहूके वचनकरनकरि, तुम जैस: गगन नप्यो ना ॥ मोहि ॥३॥ कुगुरु कुदेव .. १ अंधकार नाश करनेके लिये सूर्यका प्रकाश । २ गणधर । ६ निजबुद्धिकी कमी। ४ दौलतकी | ५ नाश । ६ स्वादिष्ट । ७ वचनरूपी हाथोंसे। - तुमारा यशरूपी आकाश ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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