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________________ ३५: जैनपदसागर प्रथमभाग तरस || शिवमग० ॥ २ ॥ दौल अवांची संपत्त: सांची, पाय र थिर राचि खेरस || शिव० ॥३॥ ( १७ ) मेरी सुध लीजै रिषभ स्वाम । मोहि कीजे शिव पथैगाम ॥ मेरी० ॥ टेक ॥| मैं अनादि भव भ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम । मोहि मोह घेरा चेरी कर, पेरा चहुंगति विदित ठाम ॥ मेरी० ॥ १ ॥ विषयनि-मन ललचाय हरी मुझ, शुद्ध-ज्ञान-संपति-लैलाम । अथवा यह जडको न दोष मम, दुख सुखता परनति सुकाम ॥ मेरी० ॥ २ ॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुर्नग्राम | परम विराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम || मेरी ● ॥ ३ ॥ निर्विकार-संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटि काम | भव्यनिके भव-हारन कारन, १ अवाच्य - कहने में न आवे ऐसी सम्पत्ति । २ श्रात्मीकरसमें । ३. मोक्षमार्ग में चलनेवाला । ४ चेला । ५. श्रेष्ठ । ६ गुणोंका समूह । ७ गुणोंकी माला | ८ कामदेव |
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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