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________________ जैनपदसांगर, प्रथमभाग कुश्रुत सेये मैं, तुम मत हृदय धरयो ना। परम विराग ज्ञानमय तुम जाने विऩ काज सरयो ना ॥ मोहि० ॥ ४ ॥ मो सम पतित न अंवर दयानिधि, पतितैतार: तुमसो ना । दौलतणी अरदास यही है, फिर भक्वास वसो ना ॥ मोहि० ॥ ५ ॥ ( १९ ) i. मैं आयों जिन संरन तिहारी । मैं चिर दुखी विभांव भावते, स्वाभाविक निधि आप विसारी ॥ मैं० ॥ १ ॥ रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन सुनत भवि शिवमगचारी । यों भम कारजके कारन तुम, तुमरी सेव एव उर धारी ॥ मैं० ॥२॥ मिल्यो अनंत जन्मतै अवसर, अव विनऊं हैं . भर्वैसरतारी । परमें इष्ट अनिष्ट कल्पना, दौल कहै झट-मेट हमारी । मैं आयो० ॥ ३ ॥ ( २० ) मैं. हररूयो निररूयो मुख तेरो । नासान्यस्त १. पापी । २ पापियोंका 'तारनेवाला । ३ अर्जी । ४ संसार समुद्रसे तारनेवालें । “५'नासिकापर लगाई है दृष्टि जिसने । ܀ /
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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