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________________ हजूरीपद -संग्रह- 1. गुन, आतंमकी निधि आगेरियां। विघटत है। पर दाहचाह झट, गटकेत समस्सगागरिया । सामरिया के ॥ १ ॥ कटत कलंक कर मकलसायनि, प्रगटत शिवपुरडागैरिया | फटत घटाधनमोहछोह हट, श्रगटत भेदज्ञानघरियां ॥ शाम० ॥ २ ॥ कृपाकटाक्ष तुमारीतें ही, युगलनागविपदा टरिया । धार भए सो मुक्तिरमावर, दौल -नमैं तुव पागरियां | शामरियाके० ॥ ३ ॥ ( १६ ) शिवमग दरसावन रार्वरी दरसे ॥ शिवमंग० ॥ ॥ टेक ॥ परपदचाहदा हगदनाशन, तुमवच भेषपान सरस | शिवमग० ॥ १ ॥ गुण चितंवत निज अनुभव प्रगटै, विघटे विधिठ दुविध १ श्राग जाती है । २ गटकते वा पीते हैं । ३ कर्मरूपी कालिख | : ४ पगडंडी | ५ रागद्वेष । ६ निजपरज्ञानकी घड़ी । ७ तुमारा नामः धारण करके । ८ आपका । १ दर्शन । १० परद्रव्यकीचाह रूपी दाहरोगको नाश करनेकेलिये । ११ तुमारे वचनरूपी दवाईका 'पीना । १२ भावकर्म द्र्व्यकर्मरूपी ठग ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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