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________________ ३ जैनपदसागर प्रथमभागहे जिन० ॥२॥ सो दुठहोत शिथिल तुमरे ढिग और न हेतु लखाया। शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुजश मुनीगन गाया ॥ हे जिन ॥३॥ तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया । भिन्न होहुं विधितै सो कीजे, दौल तुम्हें . सिर नाया ।। हेजिन०॥४॥ (१४) हेजिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै। हेजिन०॥ । टेक॥ रागरोषदावानल वत्रि, समतारसमें भीजै ॥ हे जिन० ॥१॥ परमें त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहुं छीजै । हे जिन० ॥२॥ कर्म कर्मफलमाहि नराचे, ज्ञानसुधारस पीजै ॥ ॥ हे जिन० ॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजै ॥ हे जिन०॥४॥ .. . . . (१५) शामरियोके नाम जपेतें छूट जाय भवभामरिया शामरियांके टेक दुरित दुरित पुन पुरत-फुरत१ कर्मोसे । २ पार्श्वनाथभगवानके । ३. संसारका भ्रमण । १ पाप । ५ भगजाते हैं । ६ पूर्णतया स्फुरित होते हैं । . .:.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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