SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ जैन ' पदसागर प्रथमभाग निउचित रमावतु है । जाकी ज्ञानचंद्रिका लोकालोक, माहिं न समावतु है। चंद्रानन० ॥ ४ ॥ साम्यैसिंधुवर्द्धन जगनंदन को शिर हरिगन नाव हैं। संशय विभ्रम मोह दौलके, हर जो जग भरमावतु हैं | चंद्रानन० ॥ ५ ॥ ( ४ ) जय जिन वासुपूज्य शिव-रमनी रमन मर्दैनदनुदारन हैं | बालकाल संजम संभाल रिपु मोहेव्याल - बलमारन हैं | जय जिन० ॥ टेक ॥ जाके पंचकल्यान भये चंपापुर में सुखकारन हैं। वासवैवृंद अमंद मोदधर, किये भवोदधि-तारन हैं ॥ जयजिन० ॥ १ ॥ जाके वैनसुधा त्रिभुवन जन, को भ्रमरोग विदारन है । जा गुन चिंतन अमल अनल मृतु, जनम- जराबन - जारन हैं ॥ जयजिन०॥२॥जाकी अरुन शांत छबि रवि भा १ मुनिरूपी तारोंका चित २ समतारूपी समुद्रकोव दानेवाला । .. ३ जगतको आनंद करनेवाला चंद्रमा । ४ कामदेवरूपी राक्षसको मारनेवाले ! ५ मोहरूपी सांपका । ६ इन्द्रोंके समूह ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy