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________________ गुरुस्तुतिपद - संग्रह | : १६३ कोटि बात पिय न जाय ॥ मनुवो ० ॥ टेक ॥ क्यों कहो, हूं मानूं नहिं एक । बोधमती गुरु ना नर्मू, याही म्हारे टेक ॥ मनुवो० ॥१॥ जन्मः मृत्यु सुख दुख विपति, वैरी मीत समान । राग, रोप परिगह-रहित, वे गुरु मेरे जान ॥ मनुवो ||२|| सुरसिवदायक जैन गुरु, जिनके दया प्रधान । हिंसक भोगी पातकी, कुगतिदाय गुरु आन || मनुवो० ॥ ३ ॥ खोटी कीनी पीव तुम, मुनिके गल अहि डारि । थे तौ नरकां जायस्यो वे नहिं काढ़े डारि ॥ मनुवो० ॥ ४ ॥ श्रेणिक सँगतें चलणा, छायक समकित धार । आप सातमा नरक हरि, पहुंचे प्रथममँझार ॥ मनुवो० ॥५॥ तीर्थंकरपद धारसी, आवत कालमझार । बुधजन पद वंदन करें, मेरी विपदा टार ॥ मनुवो० ॥ ६ ॥ २५ । राग - मल्हार । माई आज महामुनि डोलें । मतिवंता गुनवंत काहुसों, बात कछू नहिं खोलें ॥ माई ॥ टेक ॥ तू
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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