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________________ जैनपदसागर प्रथममागशुभबेल्यां शिववनरिवरी मुनि, अदभुत हरष बना। निजमंदिर, निश्चल राजत, बुधजन त्यांगसना ॥ मुनि०॥४॥ २३ । राग-मल्हार । देखे मुनिराज आज जीवनमूल वे॥ देखे। टैक ॥ शीस लगावत सुरपति जिनकी, चरन. कमलकी धूर वे ॥ देखे० ॥ १॥ सूखी सरिताः नीर बहत है, वैर तज्यो मृग सूर वे। चालत मंद सुगंध पवनवन, फूल रहे सब फूल वे ॥ देखे० ॥२॥ तनकी तनक खवर नहिं तिनको, जर जावो जैसे तूले वे । रंकरावर्त रंच न ममता, मानत कनकको धूल वे ॥ देखे० ॥३॥ भेद करत हैं चेतन जडको, मेटत हैं भवि-भूल वे। उपकारक लखि बुधजन उरमैं, धारत हुकुम, कबूल वे ॥ देखे०॥४॥ . . मनुवो लागिरह्योजी, मुनिपूजा विन रह्यो १.रुईकी तरह। २४॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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