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________________ १६४ जैनपदसागर प्रथमभाग नहिं आई ये घर आये, चरन कमल अब घोलें । विधि पड़गाहे असन कराये, निधि बध गई अतोलै ॥ माई ० ॥ २ ॥ नगर जिमाया कोइ न रहाया, यों अचरज कहों कोलें ॥ माई॥ ३ ॥ अन्य मुनीसर धन यह दानी, बुधजन यों मुख बोलै ॥ माई० ॥ ४ ॥ २६ । राग बंगला | वीतराग मुनिराजा मोकों दरस वताजा, दरस बताजा धर्म सुनाजा || वीतराग० ॥टेर || परिगहरत न नगन छवि थांकी, तारन तरन जिहाजा ॥ वीतराग ॥१॥ जीवन मरन विपति अर संपति, दुख सुख किंकर राजा । सबमें समता रमता निजमैं, करत आपनों काजा ॥ वीतराग० ॥ २ ॥ तनकारागृह भोग भुजंगसा, परिकर शत्रुसमाजा। ऐसी जानि त्याग वन बसिकै, राखत धर्म इलाजा ॥ वीतराग० ॥३॥ कर्मविनासी मुनिवनवासी, तीन लोक-शिर १ बंट गई । ▸
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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