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________________ १५७ गुरुस्तुतिपद - संग्रह | हमारी । भाग उदय दर्शन जब पाऊं, ता दिनकी वलिहारी || वे मुनिवर० ॥ ४ ॥ १६ | राग - सोरठ | सो गुरुदेव हमारा है साधो ॥ सो गुरु०॥ टेक जोग-अगनिमें जो थिर राखेँ, यह चित चंचल, पारा है || सो गुरु० || १|| करेन - कुरंग खरे मद माते, जप तप खेत उजीरा है। संजम - डोर-जोर वश कीने, ऐसा ज्ञान-विचारा है || सो गुरुणा२ जा लक्ष्मीको सब जग चाहै. दास हुआ जग सारा है । सो प्रभुके चरननकी चेरी, देखो अचरज भारा है || सो गुरु ||३|| लोभ-सरप के कहर जहरकी, लहरि गई दुख टारा है। भूधर ता रिखिका शिङ्ख हुजे, तब कछु होय सुधारा है ॥ सो गुरु० ॥ ४ ॥ १७ । राग- भव्हार । परम गुरु वरसत ज्ञान-झरी ॥ परम गुरु०॥टेक १ इंद्रियरूपी हिरन । २ उजाड दिये, नष्ट करदिये । ३ ऋषिमुनिका । ४ शिष्य ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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