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________________ १५६ जैनपदसागर प्रथमभाग॥ ऐसे॥१॥तिलतुषमात्र संग नहिं जिनके, ज्ञान-ध्यान-गुनवल हैं । ऐसे० ॥२॥ शांत दिगं. बरमुद्रा जिनकी, मंदरतुल्य अचल हैं॥ ऐसे० ॥३॥ भागचंद तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अलि हैं । ऐसे०॥४॥ १५ । राग-मल्हार । वे मुनिवर कव मिलि हैं उपगारी, वे मुनिवर। टेक ॥ साधु दिगंबर नगन निरंबर, संवर-भूषनधारी॥ वे मुनिवर० ॥१॥ कंचन काच वरावर जिनक, ज्यों रियु त्यों हितकारी । महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी ।। वे मुनिवर० ॥२॥ सम्यग्ज्ञान-प्रधान-पवन-बलतपपावकपरजारी । शोधत जीव-सुवर्ण सदा जे, कार्यकारिमा टारी । वे मुनिवर० ॥३॥ जोरि जुगल कर भूधर विनवै, तिनपदढोक १ परिग्रह । २ भंवरा । ३ गरिमा-वडाई । ४ गाली । ५ जलाकर। ६ कायरूपी कालिमा
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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