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________________ १५८ जनपदसागर प्रथमभागहरखि हरखि वहु गरजि गरजिकैं, मिथ्या तपन हरी । परम गुरु०॥ १॥ सरधा-भूमि सुहावनि लागै, संशय वेल हरी । भविजनमनसरवर भरि उमड़े, समझ-पवन सियरी ।। परम गुरु०॥ ॥२॥ स्याद्वादनयविजुरी चमकत, परमतशिखरपरी। चानक मोर साधु श्रावककै, हृदय सुभक्ति भरी॥ परम गुरु०॥३॥ जप-तप-परमानंद बढयो है, सु समय नींव घरी ॥ द्यानत पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी॥ परम गुरु०॥४॥ (१८) • गुरु समान दाता नहिं कोई ॥गुरु० ॥टेक॥ भानुप्रकाश न नाशत जाको, सो अधियारा डारै खोई ॥गुरु०॥१॥ मेघसमान सबनपै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहिं होई । नरकपशूगतिआगमाहितै, सुरगमुकतसुखथा सोई ॥ गुरु० ॥२॥ तीनलोकमंदिरमैं जानो, दीपक समं परकाशक लोई । दीपतलैं अँधियारः भन्यो
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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