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________________ १३२ जैनप्रदलांगर प्रथतमांग हरन निज हगकी, जैसी अँजन वटी । तातें स्वानुभूति प्रापतितैं, परपरनति सब हटी ॥ | म्हाके घर० ॥ २ ॥ ताके विन जो अवर्गम चाहै, सो तो शठ कपटी । तातैं भागचंद निशिवासर, इक ताहीको रटी || म्हारे घर० ॥ ३ ॥ १० । राग - मल्हार । बरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों बरसत० ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धि मेदिनी, मिटत भवातप पीर ॥ बरसत० ॥ १ ॥ स्याद्वाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर ॥ वरसत. ॥ २ ॥ करुना नदी बहै चहुंदिशिर्तें, भरी सो दोई तीर ॥ बरसत० ॥ ३ ॥ भागचंद अनुभव मंदिरको, तजत न संत सुधीर ॥ बरसत० ||४|| ११ राग - मल्हार । मेघघटासम श्रीजिनवानी ॥ मेघघटा० ॥ ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जामैं, बरसत ज्ञान सुपानी ॥ मेघघटा०॥१॥ धर्मसेस्य जातें बहु . १ पदार्थोंका ज्ञान । २ धर्मरूपी अन •
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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