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________________ १३० जैनपदसागर प्रथमभांग धोरी । दौल अल्पमति केम कहें यह, अधमउधारनहारी ॥ नित पीज्यो ॥ ६ ॥ ६ | राग चर्चरी । सांची तो गंगा यह वीतरागवानी, अविच्छन्न धारा निजधर्म की कहानी ॥ सांची० ॥ टेक ॥ जामैं अतिही विमल अगाध ज्ञानपानी । जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी || सांची० ॥ १॥ सप्त भंग जहँ तरंग, उछलत सुखदानी | संतचित्त मराल वृन्द, रमैं नित्य ज्ञानी ॥ सांची० ॥ २ ॥ जाके अवगाहनतें, शुद्ध होय प्रानी । भागचंद निचे, घटमांहिं या प्रमानी ॥ सांची० ॥ ३ ॥ ७ । राग - ईमन । महिमा है अगम जिनागमकी, ॥ महिमा है० ॥ ॥ टेक ॥ जाहि सुनत जन भिन्नं पिछानी, हम चिनमूरति आतमकी ॥ महिमा०॥१॥ रागादिकदुखकारन जाने, त्याग बुद्धि : दीनी भ्रमकी | ज्ञानजोति जागी उर अंतर, रुचि वाढी पुनि १. वज्रधारी - इंद्र।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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