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________________ जिनवाणीस्तुतिप्रद - संग्रह। १२९ ॥ १ ॥ सलिले समान कलिलमल - गंजन, बुधमनंरजनहारी । भंजन विभ्रम धूलि प्रभजन, मिथ्या जलद निवारी || नित पीज्यो० ॥ २ ॥ मंगलतरु उपावन धरनी, तरनी भवजल-तारी । वधैविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसैनी सम्हारी ॥ नित पीज्यो० ॥ ३ ॥ स्वपर-स्वरूप - प्रकासनको यह, भानु - किरन अविकारी । मुनिमैन - कुमुद निमोदन - शशिभा, शममुख सुमन सुवारी ॥ नित 'पीज्यो० ॥ ४ ॥ जाको सेवत वेवतं निजपद, नसत अविद्या सारी । तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ॥ नित पीन्यो० ॥ ५ ॥ कोटि जीभसों महिमा जाकी, कहिन सकै पवि १ जलके समानं । २ पापरूपी मैलको नष्ट करनेवाली । ३ नष्ट - करनेके लिये भ्रमरूपीधूल व मिथ्यात्वरूपी बादलको उडानेवाली · हवा (आंधी ) 18 कर्मबंधन छेदनेको तीक्ष्ण छेनी । ५ मुनियोंके मनरूपी कमोदनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चन्द्रमाकी रोशनी # ६ समतारूपी सुख- पुप्पोंको पैदाकरनेकेलिये चक्छी बाटिका ७ मानते वा अनुभव करते हैं. श्रात्मीक रस । तीन भुवनकें - राजाइ न्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रादि । ;
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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