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________________ जैनपदसागर प्रथमभाग गरस छमास अगाउ कनकेनग, सुरपति नगर बनावें । प्रभु०|१| क्षीर उदधिजल-मेरु सिंघासन, * मल मल इंद्र न्हुलावें । दीक्षा समय पालकी बैठो, इंद्र कहार उठावें | प्रभु तेरी ॥ २ ॥ समवसरन रिधि ज्ञानमहातम, किंहविधि सर्व बतावें । आपन जातकी बात कहा, शिववात सुने भवि जावें ॥ प्रभु तेरी || ३ || पंच कल्यानक थानक खामी, जे तुम मन वच ध्यावें । द्यानत तिनकी कौन कथा है, हम देखे सुख पावें ॥ प्रभु तेरी ॥ ४ ॥ (८९). प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥टेक॥ श्रुति करि सुखी दुखी न निंदातें, तेरे समता भाय ॥ प्रभु तेरी ॥१॥ जो तुम घ्यावें थिर मनलावें, सो. किंचित् सुखपाय । जो नहिं ध्यावत ताहि करत, हो, तीनभुवनको राय ॥ प्रभु तेरी० ॥ २ ॥ अंजन चौर महा अपराधी, दियो स्वर्ग पहुंचाय। : १ सुवरण और रत्नोंसे नगरीको बनाते हैं । २ अपमे जन्मकी । .. ३. जो तुम्हे न ध्यानकर अपनी आत्माका ध्यान करता है, उसको
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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