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________________ ( १९ ) तथा सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतमादि भावों का केवलज्ञान के विना प्रत्यक्ष नहीं होता है; इसीलिये आत्मा की वास्तविक ऋद्धि केवलज्ञान और केवलदर्शन के विना नहीं होती है । उस ऋद्धि को प्रकट करने के लिये अर्हन् देव समभावपूर्वक सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और तपरूपं समाधि का सेवन करते हैं; तथा घातिकर्मों के नाश करने के लिये निर्जल उपवासादि तथा अनेक प्रकार के उपसर्ग, परीषहों को सहन करते हैं । इस विषय में जिनको सविस्तृत वृत्तान्त देखने की अभिलाषा हो, वे हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र को आधन्त देखलें । अब गुरुतत्व के विवेचन करने की भूमिका ग्रहण करता हूँ । जो भिक्षामात्र से वृत्ति करनेवाले, सामायिक व्रत में हमेशा रहकर अपने और दूसरों के हितार्थ धर्म का उपदेश करते हुए निरन्तर पृथ्वीपर अन्य जीवों के क्लेश को बचा करके विचरते हैं और धीर होकर महाघ्रतों को धारण करते हैं वेही पुरुष जैनधर्म में *गुरु कहें * महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । तथा सामायिकथा धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥ ८ ॥ ( योगशास्त्र द्वितीयप्रकाश निव्वाणसाहए जोए जम्हा साहन्ति साहुणो । समा य सव्वभूपसु तम्हा ते भावसाहुणो ॥ २४ ॥ ( आवश्यकनियुक्ति - 2
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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