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________________ (२०) जाते हैं । अथवा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहाचर्य, त्याग, (निर्ममत्व) रूप पाँची महावतों का मन, वचन, काया से स्वयं पालन करने वाला, और दूसरों को कराने चाला, तथा अन्य करानेवाले की स्तुति करनेवालाही गुरु कहा जाता है । यहाँ पर पांच महाव्रतों में जो मुख्य अहिंसा रक्खी गई है उत्तझा यही तात्पर्य है की अहिंसा देवी के मन्दिर की सर्वथा रक्षा करने के लिये ही बाकी चार महानतरूपी दीवारें हैं। आत्मा के नाश करदेने ही को हिंसा नही कहते चल्कि अन्य को किसी प्रकार से भी दुःख पहुँचाना हिंसा है । यद्यपि आत्मा का द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सर्वदा अक्षय होने से नाश नहीं हो सकता तथापि शरीर से प्राणों के वियोग होने ही से हिंसा मानी जाती है । उन प्राणों के मूलभूत इन्द्रिय, शरीर, आयु और श्वासोच्छास रूप से चारभेद है। जैसे २ पुण्य बढ़ता जाता है वैसे २ जीवोंकी पदवी उच्च होती जाती है। याने एकेन्द्रिय जीवोंके स्पशेन्द्रिय, कायवल, श्वासोच्छास और आयुरूप चार प्राण होते हैं; और द्वीन्द्रिय जीव के रसनेन्द्रिय, और वचनबल बढ़कर छ प्राण होते हैं, तथा जीन्द्रिय जीवों के नाणेन्द्रिय अधिक होने से सात प्राण कहे गये हैं। वैसेही चतुरिन्द्रिय जीवों के चक्षुरिन्द्रिय बढ़जाने से आठ प्राण माने जाते हैं। + सूत्रकृताङ्ग की टीका में लिखा है किपञ्चेन्द्रियाणि विविधं वलंच उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः। आणा दशैते भगवद्भिरुकास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंस॥१॥ बस चार माणशन्द्रिय, कायवहाती जाती
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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