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________________ ( १८ ) यदि एकही तीर्थंकर की अपेक्षा ली जाय तो ईश्वर सादि है । समस्तं तीर्थंकरों का उपदेश समानही होता है इसलिए किसी के शासन में कुछ भी भेद नहीं रहता । देहावस्था में जो वे जगत् पर उपकार करते हैं उसको लेकरके उनकी आज्ञा की आराधना-मन, वचन, काया से हम लोग अपना कल्याण समझकर करते हैं और उनकी आज्ञा के विना समस्त क्रिया को भी व्यर्थ ही समझते हैं । जिस तरह एक अङ्क के विना समस्त 'बिन्दु (शून्य) व्यर्थ रहता है उसी तरह आज्ञा के विना धर्मकृत्य से यथोक्त फल नहीं मिलता; और उनकी आज्ञा का स्वरूप धर्माधिकार में आगे चल करके दिख लाया जायगा । अत्र तीर्थङ्कर और सामान्य केवली के मध्य में जो अन्तर है उसके समझाने के लिए प्रयत्न किया जाता है । यद्यपि तीर्थंकर और सामान्य केवली में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और दीर्यादि में तो कुछ भेद नहीं है किन्तु तीर्थकर वे ही कहे जाते हैं कि जिन्होंने पूर्वोक्त वीस स्थानों की आराधना करके पुण्यविशेष को अर्जित किया है, जिससे ३४ अतिशय और ३५ वाणी के गुण उनमें होते हैं; और वह वाणी श्रद्धावन्त जीवों के पापकर्म के नाश करने में खड्गरूप है । तत्व का प्रकाश केवल ज्ञान के बाद तीर्थङ्कर करते हैं इसलिये उनके आप्तत्व में कोई भी विरोध नहीं आता । यद्यपि जन्म होने के समय समस्त अर्हन् देवों को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानरूपी तीन ज्ञान होते हैं और इन कितने ही पदार्थों को वे जानते हैं, किन्तु ज्ञानों से समय का,
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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