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________________ प्राचीन लैटिन के 'आर्स' शब्द से बना है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इसे 'कला' की संज्ञा दी गयी थी और कला के लिए "शिल्प' तथा कलाकार के लिए "शिल्पी' शब्द का प्रयोग होता था। उस समय शिल्पियों के चार प्रकार मान्य थे-स्थपति, सूत्रग्रही, बर्धकी, तथा तक्षक। तक्षक शिल्पी काष्ठ कला, वस्तुकला, मूर्तिकला तथा लौह कला में कुशल होता था। शेष शिल्पी वेद शास्त्र ज्ञान में निपुण होते थे, जिसमें स्थपति सर्वश्रेष्ठ शिल्पी माना जाता था। प्राचीन ग्रीक और रोमन भाषा के 'आर्ट' शब्द में केवल शिल्प बोध था। उसमें काव्य-कला प्रभृति ललित कलाओं को आत्मसात करने की गरिमा न थी।' यूरोपीय सौन्दर्य-चेतना के प्रभाव से 'आर्ट' शब्द ने नूतन अर्थ ग्रहण किया। 18वीं शताब्दी के सौन्दर्य-शास्त्रियों ने शिल्प और उसके दर्शन पर विचार किया तथा उसका विभाजन उपयोगी एवं ललित कला के रूप में हुआ। 19वीं शताब्दी तक आते-आते 'ललित-कला' के लिए 'कला' शब्द का व्यवहार होने लगा और सौन्दर्य बोध के प्राबल्य में अभीप्सित अर्थ घोषित करने लगा। साहित्य में शिल्प प्रयोग एवं उसका आशय जब हम साहित्य के सन्दर्भ में शिल्प का प्रयोग करते हैं तो साधारणतया हमारा अर्थ कलात्मक सौन्दर्य से होता है, परन्तु साहित्यिक कला के सन्दर्भ में शिल्प का अर्थ बहुत व्यापक है। शिल्प विधि भी है और विधान भी। शिल्प के अन्तर्गत वे सभी उपाय, विधियाँ-प्रविधियाँ, क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा कलाकार कलात्मक सौन्दर्य सिद्धि करता है। शिल्प वस्तु (विषय अथवा अनुभूति) को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया का वैशिष्ट्य है। कलाकार साक्षात्कार किए गए सौन्दर्य तथा रूप (भाव परक) को न 1. डॉ० कमल विमल - काव्य विवेचन, पृष्ठ -25 2. आर०जी० कलिंगवुड – दि प्रिन्सिपल्स ऑफ आर्ट, पृष्ठ -7 [158]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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