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________________ अध्याय-6 जैनेन्द्र के कथा साहित्य में शिल्पगत चेतना कला और शिल्प तथा युग चेतना : अन्तर्सम्बन्ध हमारे साहित्य में अनादिकाल से ही कला और शिल्प का समादर किया गया है, किन्तु 18वीं शताब्दी में उसका स्वरूप कुछ और निखार के साथ हमारे समक्ष आया है। कोई भी कला युगीन सामाजिक-सांस्कृतिक और दार्शनिक गतिविधियों से अछूती नहीं हो सकती। मानव जीवन से अलग रहकर कला अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए नहीं रख सकती। यही कारण है कि सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ जनता की अभिरुचि और सौन्दर्य चेतना में परिवर्तन होता है। कला की जननी सौन्दर्य चेतना है। अतः यह स्पष्ट है कि युग-चेतना से कला और शिल्प संश्लिष्ट हैं। हड़प्पा कालीन मूर्तियाँ, खजुराहो की कलाकृतियाँ, आगरा का ताजमहल और इलाहाबाद का किला अपने-अपने युग की कला और शिल्प की अभिव्यंजना करते हैं। कला का स्वरूप 'कला' शब्द यद्यपि संस्कृति की मूल धातु 'कल् (कल्+कच्+टापू) से निर्मित हुआ है तथापि पाश्चात्य पर्याय शब्द 'आर्ट' के द्वारा अर्थ विकास और उसके मूलार्थ को सरलता से हृदयंगम किया जा सकता है। 'आर्ट' शब्द के साथ सौन्दर्य बोध जुड़ा हुआ है जिसने इन्हें आधुनिक अर्थ प्रदान किया है। 'आर्ट' शब्द [157]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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