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________________ अनभिज्ञ है। त्याग, सेवा और पराहित की भावना उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। उसे धन की आवश्यकता नहीं है, अतः धन की प्राप्ति उसे कष्ट देती है, क्योंकि धन समस्त अनर्थों का मूल है । 45 जैनेन्द्र के धन के प्रति अनासक्ति में ही अपरिग्रह के आदर्शो की कल्पना है, किन्तु भावना की पवित्रता के साथ ही कर्मण्यता की भी आवश्यकता अपरिग्रह है। कश्मीर की वह यात्रा उनकी अपरिग्रह प्रवृत्ति का उदाहरण है। संसार में रहकर जीवन व्यतीत करने के लिए धन आवश्यक है, किन्तु जैनेन्द्र एक स्थल पर कहते हैं कमाई एक चिन्ता का चक्कर है । सोचा कि जीवन वहाँ जीकर देखना चाहिए, जहाँ स्वयं जीविका प्रश्न न हो और आस्तिक चिन्ता का विषय न हो वह जीवन बन्धन से हीन होगा और मुक्ति का क्या अर्थ है?" किन्तु जीवन से उबकर संसार से मुक्ति लेने वाला व्यक्ति कभी महान नहीं हो सकता। मनुष्य का पुरुषार्थ कर्मशील होने में है। 'अनन्तर' में जैनेन्द्र जी के विचार द्रष्टव्य है कि "तुम जैसी कोई जो पैसे से समर्थ हो और उसकी सेवा पर होकर सर्वथा अपरिग्राही बन जाऊँ 47 जैनेन्द्र के विचारों से स्पष्ट है कि 'अनन्तर' में प्रसाद को धन के प्रति आसक्त होते हुए अपरिग्रही होने हेतु प्रयत्नशील बनाया है। जैनेन्द्र के साहित्य का सैद्धान्तिक पक्ष उनके गम्भीर चिन्तन मनन का परिणाम जान पड़ता है। अपरिग्रह धर्म का अनिवार्य आवश्यक अंग है। आदिकाल से ही ऋषियों के जीवन और उस समय के साहित्य में अपरिग्रही प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु समय के साथ-साथ उसके उपयोग में अन्तर आना स्वाभाविक था। जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार मानव शरीर की सार्थकता समष्टि की सेवा और कल्याण 178 45. जैनेन्द्र कुमार लाल सरोवर, पृष्ठ 46. जैनेन्द्र कुमार- कश्मीर की वह यात्रा, पृष्ठ 47 जैनेन्द्र कुमार अनन्तर, पृष्ठ- 61 - 67 [109]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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