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________________ मे सन्निहित होने में है, उसी प्रकार व्यक्ति का धन समष्टि की पूर्ति का साधन होना चाहिए। जैनेन्द्र के अनुसार धन का संग्रह पाप नहीं है, यदि व्यक्ति को उसके प्रति कोई वासना न हो। धन का संग्रह सार्वजनिक हित के लिए चाहिए। जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' में व्यक्त किया है कि 'आप लोग सार्वजनिक पैसा रखते हैं, जिसमें मेरा हम नहीं पहुँचता और इसलिए पैसा मुझे पास लेना पड़ता है। जैनेन्द्र के अनुसार अपरिग्रह धर्मनीति का अनिवार्य अंग है। अपरिग्रही आचरण द्वारा जीवन के सत्य का बोध हो सकता है। संसार में कोई न कुछ लेकर आया है न कुछ लेकर आता है और न कुछ लेकर जाता है। वस्तु या धन के संचय में मनुष्य का 'मैं' प्रबल हो उठता है। यह तेरा' 'वह मेरा' यह भावना संघर्ष की प्रेरक बनती है। जैनेन्द्र ने मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना के लिए अपरिग्रह को महत्वपूर्ण माना है। जैनेन्द्र के अनुसार संसार मिथ्या है, मानव शरीर नश्वर है। अतः संचय की प्रवृत्ति निरर्थक ही सिद्ध होती है। परहित जैनेन्द्र के अनुसार मानव धर्म परहित की भावना पर आधारित होना चाहिए। उसमें अहं-विसर्जन के भाव सन्निहित होने चाहिए। जैनेन्द्र जी की धारणा है कि शरीर को अधिक कष्ट देकर व्यक्ति इन्द्रियों को संयमित कर लेता है. उसकी सांसारिक विषयों में वासना नहीं रहती। जैनेन्द्र के अनुसार जो मनुष्य संसार से विरक्त होकर धार्मिक होने का प्रयास करते हैं, वह उनका बाहरी दिखावा है। 48 जैनेन्द्र कुमार - अनन्तर, पृष्ठ - 141 49 पदार्थों को बटोर कर उनके बीच हमने रुकना चाहा, यही हमारी भूल है। क्या कोई कभी रुक सका (जैनेन्द्र कुमार - प्रतिनिधि कहानियाँ, पृष्ठ -234 [110]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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