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________________ जैनेन्द्र कुमार हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं । साहित्यकार का भी एक धर्म होता है, उसे साहित्य का धर्म कहते हैं । साहित्य की रचना की कुछ मर्यादाएँ होती हैं, उनसे अलग रहकर साहित्यकार अपने साहित्य के महत्व को अक्षुण्ण नहीं रख सकता । उपदेश देना अथवा प्रचार साहित्यकार का धर्म नहीं है। यही कारण है कि जैनेन्द्र जैन धर्म के समर्थक होते हुए भी प्रचारक नहीं बने हैं। जैनियों की यह बड़ी अभिलाषा थी कि जैनेन्द्र जैन साहित्य की रचना करे, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार जैन साहित्य लिखना ही जैन धर्मावलम्बी होने का सूचक नहीं है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है — "क्या जो मैं लिखता हूँ वह साहित्य जैन नहीं है xxxxx क्या जैन धर्म ग्रन्थों में वर्णित नामावली तथा शब्दावली के प्रयोग से कोई जैन बन जाता है। उस सूरत ऐसा भी तो हो सकता है कि वह साहित्य जैन तो हो साहित्य हो ही न। 28 जैनेन्द्र के अनुसार जिस कार्य के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा होती है. ....... उसका प्रभाव अनायास ही साहित्य में परिलक्षित होने लगता है । साहित्यकार को उसके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, क्योंकि प्रयास में प्रचार का आग्रह रहता है। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में धर्म के किसी वाद का प्रचार नहीं किया गया है, उनके पात्रों का जीवन इस प्रकार से ढाला गया है कि वे अपने आचरण में अपनी धार्मिकता का आभास देते हैं । जैनेन्द्र ने जैन धर्म की ही तरह वस्तु के स्वभाव को ही धर्म माना है, किन्तु मनुष्य के स्वभाव को ही कर्म मान लेने से धर्म का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाता। जैनेन्द्र ने मनुष्य या वस्तु की आत्म प्रकृति को ही धर्म माना है । " आत्म तत्व की प्राप्ति ही जीवन का परम धर्म है। जैनेन्द्र के समस्त कथा साहित्य के पात्र उसी आत्मतत्व 28 जैनेन्द्र कुमार - परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ - 42 29 जैन धर्म को भी इतना जानता हूँ कि वह आत्म धर्म है। (जैनेन्द्र कुमार मंथन, पृष्ठ - 91) [100]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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