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________________ के साक्षात्कार में प्रयत्नशील दिखाई पड़ते हैं। 'जयवर्धन', 'कल्याणी', 'त्यागपत्र', 'परख' आदि उपन्यासों में अहं के विसर्जन द्वारा आत्मतत्व की प्राप्ति का प्रयास किया गया है। धर्म की पूर्णता अह के विसर्जन में ही सम्भव हो सकती है। जैनेन्द्र ने धर्म के शास्त्र-सम्मत रूप को भी स्वीकार किया है धर्म शब्द 'धृ धातु से निःसृत है। 'धृ' का अर्थ है धारण करना। धर्म की धारण-शक्ति के कारण ही सृष्टि टिकी हुई है। मनुष्य का धर्म सांसारिक बन्धनों से संयुक्त होकर ईश्वर की ओर आकर्षित होता है। हिन्दू धर्म में यह स्वीकार किया गया है कि धर्म की धारण शक्ति 'आत्मा' में ही व्याप्त है। अतः प्रत्येक कर्म का मूल आत्मकेन्द्रित होना चाहिए और समस्त कर्मों को ईश्वर की प्राप्ति के हेतु ही किया हुआ समझना चाहिए। सभी धर्मों के प्रति आदर की भावना रहते हुए भी जैनेन्द्र ने स्वधर्म को सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ माना है। धर्म और सम्प्रदाय ___ धर्म अपने विशुद्ध रूप में अव्यक्त है, क्योंकि वह आत्मधर्म है। आत्मा का केवल अनुभव किया जा सकता है, किन्तु उसे देखा नहीं जा सकता। आत्मा की सत्यता शरीर में ही है। नहीं तो वह प्रेत के समान है। आत्मा के बिना शरीर मुर्दा अथवा शव कहलायेगा। अतः दोनों का सहअस्तित्व अनिवार्य है। एक के अभाव में दूसरे की कल्पना सांसारिक दृष्टि से ठीक नहीं है। मनुष्य जीवन में रंग-रूप, गरीबी-अमीरी, ऊँच-नीच आदि विभिन्न बातें मिलती है। मनुष्य अपनी नासमझी के कारण इन बाह्य भेदों को ही सत्य मान लेता है और सारे जीवों के प्राण की समानता के रहस्य को भूल जाता है। इसी 30. जैनेन्द्र कुमार - जयवर्धन, पृष्ठ - 196-197 [101]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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