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________________ छोडकर लाहौर चला जाता है। यथार्थ जीवन में श्रीकान्त इसलिए असामान्य पति का उदाहरण प्रस्तुत करता है। हरिप्रसन्न क्रान्तिकारी है। परन्तु सुनीता के सम्पर्क में आते ही उसकी देशभक्ति समाप्त हो जाती है। उसके लिए क्रान्तिकारी पार्टी का उद्देश्य देश-सेवा नहीं रह जाता, बल्कि उनका उपयोग अपनी काम दृष्टि के लिये करता है। इसी बहाने वह सुनीता को रात के अंधेरे में सुनसान जंगल में ले जाता है। सुनीता भी अतृप्त है तथा काम कुण्ठा से त्रस्त है। पति के साथ रहकर भी उसके जीवन में उल्लास नहीं है। ऐसी दशा में हरि प्रसन्न सुनीता और श्रीकान्त के बीच प्रवेश करता है, जिसमें सुनीता अधिक दिलचस्पी दिखाती है, उसकी छोटी से लेकर बड़ी बात तक का विशेष ध्यान रखती है। प्रमुख बात यह है कि सुनीता गाँधीवादी अहिंसा का आश्रय ग्रहण करके नग्न होने के बावजूद मानसिक रूप से अपनी पवित्रता तथा शुद्धता को स्वीकार नहीं कर पाती। वह हरिप्रसन्न के लिये फिर भी चिन्तित है तथा उसके चरणों की धूल लेकर सौभाग्य सिंदूर भरते हुए उसे विदा देती है। स्पष्ट है कि सुनीता मे भी हरिप्रसन्न के प्रति काम वासना है जिसे टाला नहीं जा सकता और इसे अहिंसा के आवरण में ही ढका जा सकता है। हिन्दी कथा साहित्य के विकास के साथ गाँधीवादी विचार दर्शन का आदर्श भी बहुत कुछ टूटता गया। स्वयं जैनेन्द्र जी अपने उपन्यास 'कल्याणी' (1929) में इस दृष्टि से असफल रहे हैं। कल्याणी अपने पति को असरानी के हृदय परिवर्तन के लिए सत्याग्रह प्रयास तथा आत्मपीड़ा का मार्ग अपनाती है, लेकिन अन्त में असफल ही रहती है। जैनेन्द्र की आस्था अपनी जगह तब भी कायम रहती है। वस्तुतः जैनेन्द्र ने गाँधी दर्शन को संपूर्णता में नहीं अपनाया, केवल कुछ खास रूपों में ही वे उलझे रहे तथा आत्मपीड़ा को ही गाँधी [90]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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