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________________ जैनेंद्र को कहानिया दसवा भाग मे तो यह नही हो सकता । मैंने उन्हे नही बुलाया है । मैं माथ गई शुरू अपने से नही गई, भेजी गई तो गई। फिर मुझ पर क्या इल्जाम है, मालूम तो हो ।” "लेकिन सुनता हू, हठ तुम्हारी है कि अलग होगी..." ( हा है | लेकिन वह दूसरी बात है ।" "इससे उसका कोई सम्बन्ध नही है ?" ४२ · "ना कोई सम्बन्ध नही है । वल्कि इस अपवाद के मुझे उल्टे रुकना पड रहा है । अब तक तो मुझे जाना चाहिए था ।" कभी का बुजुर्गं यह सुनकर दुविधा मे रह गए। उन्होने सविता को देखा । उसके चेहरे पर मलिनता नही थी, कठोरता थी । जैसे क्षमाप्रार्थना न हो, अभियोग हो । दोप स्वीकार की जगह, दोपारोपण हो । कारण तो अलग हो " बुजुर्ग ने कहा, "सविता वेटी ! मैं समझ नही पा रहा हू, ठीक तरह से । किशोर की बात को मैं समझता था, जड मे है । लेकिन "वह यही कहते थे ग्रापसे ?" ." "हा, केशव यही कहता था सुनकर सविता ने कुछ नही कहा । थोडी देर मानो सोच मे एकदम चुप बनी रही । फिर बहुत धीमे-जैसे मेरे सुनने के लिए न हो, उसने कहा, "तो ठीक है ।" और कहकर ऐसी चुप हो गई कि मानो आगे किसी के लिए कुछ नही बचता है । 1 बुजुर्ग को भी ऐसा लगा कि बात चारो तरफ से सपाट कट चुकी है । "नविता अव सूत्र कही शेप नहीं रह गया है । तो भी हठात् वोले, मुझे इतना बताओ कि किशोर को अपने जीवन से तुम बाहर मान सकती हो ?" उत्तर में मानो रोप में सविता ने अपने उन हिर्नपी बुजुर्ग की तरफ देसा । मानो अपने को उसे रोकना पड रहा हो। उगने यहा, "अपनी जिन्दगी में मैने लिया नही है और बाहर करने का गवान नही
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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