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________________ विच्छेद सता सकता है तुमको । मुझे कहो, में केशव को हर तरह मीधा कर सकता हूँ। "बस जरा कुल की लाज की बात है। उस बारे मे बडे लोग कुछ वचन भी तुमसे चाहे, तो उसमे तुम्हारी तरफ से तो मैं कोई कठिनाई नहीं देखता हूँ।" "वचन । कैसा वचन ?" सविता के माथे पर लाल बिन्दी समक्ष बनी बैठी थी। विन्दी नही, बिन्दा ही कहना चाहिए । माथे का काफी भाग उसने घेर रखा था। उसका आवेश उस सुहागबिन्दु के प्रतिकूल नहीं मालूम हुआ। बोली, "कैसा वचन आप मुझसे चाहते है ?" बुजुर्ग ने कहा, "नही बेटी, नही । देखो, गलत नहीं समझा करते । तुम्हारे मान पर इसमे बीतती है, यह मैं देख रहा हू । लेकिन अगर इतने से सबको आश्वस्ति मिलती है, तो तुम्हारा उसमे क्या जाता है ?" अब उन पाखो मे किसी तरह का भीगापन नहीं रह गया था। वल्कि सख्ती पाती जा रही थी। बुजुर्ग अनुभव कर रहे थे कि कही कुछ गलत हो रहा है। लेकिन मानो वात हाथ से निकलती जा रही थी। कुछ यह भी लगा कि इस तरह अन्दर को भभक निकले तो अच्छा सविता ने कहा, "मैं घर में रहती है। घर से बाहर मेरी तो पहरेदारी नहीं है । जिसको चाहे बाहर से ही रोक दिया जा सकता है । मैंने उस बारे मे कुछ कहा है ? लेकिन यह मैं कभी नही कर सकती कि घर के अन्दर कोई आए और मैं आतिथ्य न दू । जिसको यह घर नहीं चाहता है, उसको बाहर ही बाहर क्यो नही रोक दिया जाता है ?" __"इसमे तुम्हारे मन पर दबाव आए, यह तो घर का कोई आदमी नहीं चाहता, वहू रानी।" "फिर ये क्या चाहते है ? रोक दें जिसे रोकना चाहते है। फिर मैं शिकायत भी करू तो कहे । लेकिन पाने खुद देते हैं, चाहते हैं मुझसे कि अनादार मै करू । यह नहीं हो सकता। किशोर हो कि कोई हो,
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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