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________________ ३२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग कुछ काम ही कर लो । मै कहू उन लोगो से ?" "नही मा, भगवान कुछ अवश्य करेंगे ।" जग्गी बेटे ने उत्तर दिया और वह मा की उपस्थिति से भटपट अलग हो गया । मनोरमा भगवान को मानती है । पर क्या वह सचमुच कुछ करते है ? अभी तक तो कुछ करते उसने उन्हे देखा नही है । जगरूप का, भगवान का भरोसा उसे अन्दर तक काट गया । उसे ऐसा लगा कि जैसे यह उसका भगवान का भरोसा सिर्फ इसकी घोषणा है कि मा का भरोसा तो अब किया नही जा सकता ! मनोरमा इस पर गहरी पीडा से भर आई और उसकी आखो मे आसू आ गए । मे अकेली थी । श्रासू कब तक बहाती किसके लिए बहाती ? अत हठात् और मानो व्यस्तता के साथ इधर की चीज उधर और उधर की इघर उठाने-धरने लगी । इसी मे उसने यह देखा, वह देखा, और अपने सव ट्रक-वक्स खोल-खोलकर बन्द करने लगी । अन्त मे एक ट्रक के आगे, उसकी चीजो-कपडो को उठाते - पटकते के बीच, वह वैसी की वैसी बैठी रह गई । दो-चार छ-आठ मिनट वह ट्रक का एक हाथ से पल्ला पकडे, सामने अवर शून्य मे टक बाधे वस देखती रह गई । उसकी सुध जाने कहा गई थी और वह समाधि मे हो आई थी । अन्त मे उसने ट्रक की तलहटी मे से एक कागज में लिपटा और रेशमी विन से वधा पैकिट बाहर निकालकर अपनी गोद मे रखा । और फिर बेहद श्राहिस्ता और सभाल के ट्रक का सामान ट्रक मे चिन दिया । अव उसमे एक समाहित भाव था । मानो अवर मे पाव कही टिक आए हो । नगरप के आने पर मनोरमा ने कहा, "बेटा, दाखिला कव होता है ?" ?" जगरूप ने मा को देखा और प्रसन्नता से कहा, "क्यो, मा "कुछ नही, भागलपुर चलना होगा ।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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