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________________ २२ जैनेन्द्र की कहानिया दमवां भाग "यह क्या कह रही हो तुम ?" "ठीक कह रही है। दिल्ली मे काम देखते रहना । कहां इसरउधर जाते हो । बनायो, इस वीच कुछ बवाया है तुमने ? न वच्चो को बुछ दे सके हो । तन भर पाला है, सो तो यहा भी हो ही जाएगा।" "मैं यहा रह सकता हू ?" "क्यो नहीं रह सकते हो।" "मुरारी तो कहता था कि " "तुमने मुरारी को अधिकार दिया है कि-तम्हारी जगह वह मेरे साय .." "क्या बक रही हो?" "-मगर शर्त है कि तुम आदमी बनकर हो । रह रहकर जो तुम उपदेशक और वहशी बना करते हो, सो नहीं चलेगा।" "तुमने समझा क्या है अपने को ? वकवाम बन्द करो। और तयार हो जायो। कोई नोकरी-वौकरी नहीं होगी। और जैसे मैं रहूगा और कहगा, वैसे तुम्हे रहना और करना होगा । गर्म नहीं आती तुम्हे कि मैं खडा ह, और तुम बैठो बतला रही हो?" शारदा पलग पर अपनी जगह से भी अब बडी नहीं हुई और मुस्कराकर कहा, "अभी मुरारी के यहा तुम ले जायोगे-शमं की बात यह है । मैं वहा नही जाऊगी।" ___ "छोडो, न सही । मुरारी वैसे अपना है और मौतविर है। लेकिन कोई बात नहीं । सीवे मेरे साथ चलो, जयपुर।" "जयपुर ।" "मालिक लोग अब भी चाहते हैं। नौकरी मैने अपने में छोड़ी थी। "रामू कहा है ? पच आएगा?" "वह तो गाम पो नात-पाठ तक पाता है। सात मीन जाना परता है। बड़ी मुनिल से नाल भर भटकने पर नौकरी लगी है !"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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