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________________ निश्शेप २१ रामगरण ने कहा, "यह हाथ काफी है । क्यो, पहली मार भूल गई ?" शारदा बैठी-बैठी मुस्कुराई । उसके भवो मे तेवर थे । बोली, “वारवार तुम्हे मारने का कष्ट उठाना पडेगा--अगर जीती रहने दोगे । एक वार मे खतम क्यो नही कर देते ?" "खतम ही करना होगा, एक बार । अभी यहा से चलना होगा।" "कहा ले चलोगो ?" "वैठी-बैठी बातें न करो, खडी हो जानो । जहा मैं रहूगा, वहा तुम रहोगी।" रहती तो थी । निकाला तम्ही ने नही था ?" "निकाला था, मैने ही निकाला था। इसलिये निकाला था कि तुम घर के लायक नहीं थी। लेकिन अब देखता हूँ कि पति का कर्तव्य उतना ही नही है । घर की रक्षा के लिए तुम्हे निकाला था। पर देखताहू वह तुम्हे और मौका देने के बरावर हो गया। हद हो गई है तुम्हारे हरजाई. पने की। तुम समझती हो तुम गुलछरे उडाने के लिए हो । नहीं, तुम्हारा वाह हुना है । और पुश्चली व्यभिचारिणी को घर मे रखने का धर्म अगरचे, नहीं है तो भी अब मैने पहचान लिया है कि पति होकर मैं तुम्हे उस आवारगी के रास्ते पर बढते जाने का पाप अव नही सह सकता। आज समझ लो, तुम्हारी बदमाशियो का अन्त आ गया है।" ___ शारदा मुस्कराई । बोली, "मुरारी कहता या, नौकरी छूट गई है।" "तुझे इसी का गुमान है, बदकार, कि तू वी० ए० एल-टी० है और नौकरी पर वहाल है ! औरत की जिन्दगी खाविन्द के साथ है। और वह भीख मागेगा तो भी औरत को उसकी सेवा करनी है। व्याह पैसे से होता है कि मर्द से होता है? चलो उठती हो कि नही ?" ___शारदा ने कहा, "मुझे इरा वक्त पौने चार सौ मिल रहा है। दिल्ली वडी जगह है । दूटोगे तो तुम्हे भी काम मिल जाएगा। यही क्यो नही रह जाते ?"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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