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________________ १५६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग हमे । वोले-"अच्छा अच्छा, किसी ने न भेजा सही। पर भाई सदाचार के लायक तो मैं हू नही। सिर्फ तीन सौ रुपये मेरी प्राय है, सोचने की बात है कि तीन हजार मासिक पाय से पहले सदाचार क्या शुरू भी हो सकता है ?" मै तो भौचक्क होकर शर्मा जी की ओर देखने लगा। वह कहने के अनन्तर कुछ हस आये और वह हसी बहुत निर्मल मालूम होती थी। लेकिन देखते देखते वह चेहरा कस आया और मानो उन्होने उपट के साथ मुझे देखा । बोले-"तुम यहा आये हो, सदाचार के बारे मे पूछते हो । तुम्हे बैठने को कुर्सी नहीं मिली। गर्मी मे हवा का पखा नहीं मिला । लस्सी मे बर्फ नहीं मिल सका । मैं पूछता हू, यह सदाचार है ? जितनी देर तुम्हारे साथ बैठा रहा है, लगता रहा है कि मैं यथायोग्य तुम्हारा सत्कार भी जो नहीं कर पा रहा हू, सो दुराचार कर रहा हूँ। श्रामदनी होती तो मैं तुम्हे सोफा पर विठा सकता था और तुम्हारी खातिर जरा तरीके से कर सकता था' समझे ? सदाचार पैसे से होता है, इसलिए पैसे के लिए जो किया जाता है, उसे दुराचार मानना इकतरफा है"भ्रष्टाचार तुम लोग किसको कहते हो ? मेरा यह प्राचार भ्रष्ट क्यो नही है कि मैं जी खोल कर स्वागत सत्कार भी नहीं कर सकता। क्यो मैं दवा और सिमटा रहता हू । खर्च कम करने की फिक्र मे रहना क्या कभी सदाचार हो सकता है ? इसलिए गलती करते हो, अगर सदाचार मे मुझे आगे करना चाहते हो । मिनिस्टर लोग, अफसर लोग हैं, जिनको हक है कि सदाचार करें और कराए । 'तुमको किसी ने भेजा नहीं है, खुद आये हो । मुझे यकीन नहीं करना चाहिए इस बात का। तुमने पालिटिक्स मे एम० ए० किया है। तुम ऊचा देख सकते हो, मैं जानता हूँ कि ऐसी भूल तुम्हारे बस की नहीं हो सकती । समझदारी का रास्ता वह नहीं है। लेकिन लोग है जो राज भी चाहते हैं और सदाचार भी चाहते हैं । दोनो चाहे अपनी जगह नहीं है. "उनमे जाकर कहना, अगर इशारा तुम्हे वहा से मिला है, कि शर्मा की आमदनी जिस
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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