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________________ 1 चक्कर- सदाचार का १५५ उपाय न था और मन ही मन में झल्ला रहा था कि किस जगह आकर फसा । लेकिन मिस्टर वर्मा से मुझे मिलना था और मै अवश्य चाहता था कि एच० एम० से जो बात निकली है, उसकी पूर्ति मे मैं किसी न किसी तरह काम ग्राऊ, जिससे वहा तक मेरी रसाई हो सके । गिलास लेकर मैं सिप करता जाता था और शर्मा जी की ओर इस प्रत्याशा से देखता जाता था कि वह पिघलेंगे और मेरा काम पूरा हो जाएगा। लेकिन मालूम होता था, लस्सी के गिलास से बाहर किसी देश और सदाचार की उन्हे चिन्ता नही है और उनका मानस घिरा ओर सिमटा है । पर तोवह, उस ढीम गिलास के आधे तक आने मे मेरी सामर्थ समाप्त हो गई और गिलास को मैंने एक तरफ कर देना चाहा । शर्मा जी बोले - " अरे भई, जवान हो। यह क्या, पूरा पी डालो।" लेकिन वह किसी तरह सभव न हुआ, और में लज्जित हो प्राया और शर्मा जी ने कृपा की और मैंने अन्तिम बार कहा कि वताया जाय कि समिति मे होने की अनुमति में प्राप्त मान सकता कि नही शर्मा जी के चेहरे की कठोरता एकाएक बेहद उघर आई । बोले"तुम जवान हो, साफ कहो, किसने तुम्हें भेजा है ?" ? मैं घबराया । बोला - "भेजा ! जी नही " समिति तुम नही बनाये हो, नही बना सकते हो | यह काम राज्य के मत्री से शुरू हुआ है। सचमुच काम भी उन्ही का है । सदाचार कानून से चलेगा श्रौर बनेगा । जैसे दुराचार स्वभाव हो आदमी का । तुम्हारे कधे क्यो फालतू हैं कि उस बोझ को ढोते हो । बडी ताकत है कानून के पास | क्यो उसका भरोसा नही करते हो और उसमे दखल देने पहुचते हो ? फिर कहने आते हो, वैसी बेवकूफी में करू सच बोलो, किसने भेजा है ?" - " "जी नही ।" मेरी मुद्रा शायद इसी योग्य हो आई होगी । शर्मा जी मज्ञ देखकर
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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