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________________ १०८ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग उनको कुछ सूझा नहीं । तभी एक हाय बढाकर उन्होने बटन को दवा दिया । जोर से दवाये रहे। घर के अदर वजती हुई घटी की आवाज इस कमरे तक साफ कानो मे आकर पडती थी। अजीत ने भी वह गज सुनी । वह तनिक घवराया। राजकुमार जी ने कहा, "वेटा उठो, द्रौपदी माती होगी।" द्रौपदी माती होगी। क्या सचमुच वह पाती होगी ?.. श्रजीत राजकुमार जी के चरणो मे से उठा और झटपट उसने गर्वथा स्वस्थ हो जाना चाहा। "बेटा, ठीक वैठ जाओ। मुह-उह पोछ लो। तुम्हे स्वस्थ और प्रमन्न दीखना चाहिए । है न?" अजीत ने जल्दी अपने कपडे सवारे और आगे बढकर आलमारी के शीशे के सामने जाकर बाल-वान ठीक किए और सभल कर गहरी एक काऊच मे निश्चितता के साथ हो बैठा। तभी द्रोपदी ने कमरे मे प्रवेश किया। राजकुमार जी को उधर ही निगाह थी और अजीत की जानबूझ कर पीठ थी। द्रौपदी एक क्षण ठिठकी। फिर आधी की तरह भागती हुई प्राई और दोनों बाहो ने बैठे हुए अजीत की गर्दन में भूल पडी। उच्छ्वान के साथ बोली, "भाई साहब" राजकुमार जी आस में भर कर पाते हुए पासुओं को रोककर हठात् पासो को पोछते हुए चुपचाप कमरे से बाहर निकल पाए। उन दोनो को मालूम भी नहीं हुआ । बाहर आते ही उन्होंने दरवाजे को चटसनी लगा दी। घर के अन्दर पहुचे तो घर की मालकिन ने पूछा, "क्या हुआ?" वोले, "कुछ नहीं । सब ठीक है। दोनो अन्दर है।" "यह क्या गजव कर दिया है तुमने !" "पिफर न करो। बाहर मे चटगनी बन्द है।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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