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________________ वे दो १०७ हैं, समाज क्या करता है, राज क्या करता है- - इसमे में क्या कह सकता हूँ ? मुझे अगर जीना है, जीते रहना है तो कोई कुछ करे, मेरे लिए दूसरा रास्ता नही है । श्रापका बाप का हक है, मेरा कोई हक नहीं है । जानता हू पति और पत्नी जीवित है । शोर में भरसक अपनी स्त्रह छाया उस विचारी भौली विमला पर से हटाना नहीं चाहता । इसीलिए तलाक की बात नही सोची और श्रव भी सोचना टालना ही चाहता हू । लेकिन अगर और राह नही है तो श्राप से सौगन्ध खाकर हता हू कि मानसिक या शारीरिक या कहिए तो मार्थिक कोई संबंध उधर नही रसूगा और परिपूर्ण पार्थक्य का पालन करुगा। लेकिन मुझे जीने दीजिए। सभव हो सकता है कि निकम्मा ही मे न निक और कुछ काम की किरणें भी मुझसे फूट निकलें। बाबूजी, मैं आपका हूं, मुझे अपना बनने दीजिए। में दुष्ट नही हू, श्रपराधी नहीं हूं। लेकिन कभी लगता है कि रास्ता मुझे नही मिलने दिया गया तो में सब कुछ, सभी कुछ बन सकता हूं । सच यहता हू, बाबूजी, इस वक्त कुछ मुझ से बाहर नहीं है। देवता भी बाहर नही है और दानव भी बाहर नहीं है | कुछ मोर मतलव न लीजिएगा। लेकिन हत्या भी करनी पड़ जागगी तो इन हाथो से हो सकेगी। यह में बिल्कुल संभव मोर भासान मानता है ।" "मजीत !" राजकुमार जी ने देखा कि प्रजीव टूटने के बिनारे भा गया है। जाने से यह सपने और अपने मांयों को धामे हुए है । सम्बोधन सुनकर भजीत चौका। यह एक क्षण नृला सा सामने देवता रहा | जैसे पापों में ष्टि न हो या घांसों के पीछे मोसम में से पप गायन हो गई हो। फिर यह सहना उठा और राजकुमार की के परणों में गिर कर फुट उठा, "मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है, बानूजी ! मेरी रक्षा दीजिए।" राजकुमार जी पसीजे और गलकर इतने पाटन गए।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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