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________________ वे दो १०३ बीच में ही अजीत ने कहा, "और पाप अपने को विचारशील रहते हैं । यही आपकी विचारगीलता है ? बाप होने भर से बेटी को अपनी चीज मानते है और उसके जीवन का भला-बुरा नहीं सोच सकते । अपनी और समाज की नीति को रसने और सन्तान के मन को कुचल कर मार डालने की जो बात करता है वह अपने को विगरशील कहता है । "मैं चलता हूँ । सब व्यर्थ है।" "बैठो, बैठो " राजकुमार जी ने उटते-उटते अतिथि को टोपते पौर रोकते हुए कहा, "ठीक कहते हो तुम कि शायद पिता मुझ मे बोल रहा है। इस समय विचारशीलता उसके अधीन हो गई हो सपती है । लेकिन द्रौपदी से तुम्हारा परिचय हुआ, उसमे पहले उसे स्नेह कहा मे मिलता था और उसका स्नेह फिसको मिलता था ? उस मवको योता नहकर आज तुम क्या किसी तरह अस्त और प्रवर्तमान कर सकते हो । यह यात सच है कि तुम्हारी पत्नी के जीवित रहते मैं यह कमी नहीं होने दूगा कि यह तुम्हारे सग-साथ रहे । इसको रोकने के लिए कानून की सब पक्ति का प्रावेदन करते भी मैं नहीं निमगा। तुम्हारा मन और द्रौपदी का भी मन बाद मे प्राता है, तुम्हारा असली सामाजिया हित पहले है । उग सहवास मे से विप पोर नरक उपजता है जिनो बाहर की भोर में विश्वास पोर सद्भाव नहीं प्राप्त होता पौर नलिए जो दो मे हो घुटकर रह जाता है । प्यार प्रफाग चाहता है। पन्धेरे में ही जिसती रहना पडेगा, वह पार इतनी जल्दी सट्टा और ना हो जाएगा कि उनमे से देश की लपटें फूट निकलेंगी। मैं पह राव माजही ये सपाता हू । तुम नहीं देग रायते, पयोकि वीच गे वे सपं सुमने सभी पार नहीं किए हैं, जिनमें यह दर्शन प्राप्त हुमा करता है । रोपिन सिहन बनुगवहीनता के नाम पर तुम लोगो को जमान परमानोंगे गुन मेलने में गिर नही पहा पा रायता • यह छोटो। एक वाजतामो, विमला पर तुम्हें नाप है"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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