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________________ १२ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवां भांग] थी। बड़ी मुश्किल में वही कोठरी उसे मिल गई है, उसी को गोबर से सुथरा करके, अपनी चीज़-बस्त लेकर वहीं रहती है। उसका डेढ़ रुपया महीने किराया देती है, और उसमें सील भी कम नहीं है, और चूहे भी कम नहीं हैं, और धूप वहाँ कभी दीखती नहीं है, और गाय-बैल भी पड़ोस के लाला-साहब के बराबर में रहते हैं, और वह परमात्मा को धन्यवाद देती हुई उस कोठरी में रहे आती है। वह सबके हाथ जोड़ने को तैयार है, और अपने जीने के लिए परमात्मा से लेकर सब आदमियों की कृतज्ञ है। __ फूल वाली है, फल और पत्ते लेकर साँझ-सवेरे जमनाजी पै जाती है। वहाँ से जो पाती है, उसमें से मकान-मालिक को किराया देती है, पेट पाल लेती है, और बहुत-कुछ बालकों में बाँट देती है। तड़के-सबेरे तीन बजे उठकर जमनाजी के लिए वह चल पड़ती है। बेल के और तुलसी के पत्ते, और बताशे आदि सब-कुछ वह अपनी डलिया में सही-शाम से ही ठीक करके रख देती है। पर फूल सबेरे-हाल डाल से उतारे ले जाती है। इस कोठरी में जिसमें दिन में रात रहती है, और रात में जिसमें उस बुढ़िया और उन चूहों के अतिरिक्त शायद केवल नरक ही रह सकता है-उस कोठरी में कैसे पता चलाती है कि तीन बज गये, समय हो गया, अब चल पड़ना होगा ! पर इसमें चूक नहीं होती। फूल लेकर कोई नहीं पहुँचता, तभी जमनाजी पहुँच जाती है, और सड़क के मोड़ पर बैठ जाती है। बैठी-बैठी डलिया सामने लिए वह सोचती है...नहीं, सोचती नहीं है । सोचने को उसके पास है क्या ? सब ठीक-ही ठीक है, सो उसके मन में मालिक के लिए धन्यवाद ही है। और कुछ निर्माल्य के आँसू भी हैं।...नहीं, सोचती नहीं है,...ठिठुरी बस बैठी रहती है ।...नहीं जी, ठिठुरी भी कहाँ बैठी रहती है-बस, तभी जमना वालों का आना-जाना लग जाता है। उस समय वह काम से भर उठती
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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