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________________ रुकिया बुढ़िया नानी ने कहा, "नहीं हैं बेटा, और डलिया नीची कर दी।" उस डलिया में जो फूल की पत्तियाँ और टूटे बताशे, तुलसी और बेल के पत्ते, और नाज के दाने पड़े थे, एकदम उन पर छीन-झपट मच पड़ी। डलिया सम्भाले रखना बुढ़िया को मुश्किल हो गया । । ___ अब बोलो, यह कहीं का शऊर है ! बुढ़िया ने कहा, "चलो, हटो। नहीं है कोई फूल-वूल-हाँ, तो...बदमाश ।" और यह कहने के साथ बुढ़िया ने अपनी डलिया छिना लेनी चाही। इससे कम, या इससे अधिक, बालकों को और क्या चाहिए था। कुछ इधर हो गये, कुछ उधर हो गये, और अब डलिया के साथ, स्वयं बुढ़िया पर छीन-झपटी-सी करने लगे। बुढ़िया को कुछ सूझ नहीं पड़ा । उसे गुस्सा हो गया, और डलिया थामे, सब प्रहारों को बचाती हुई, उसी हाथ से अपनी ओर से भी कुछ प्रहार-सी करने लगी। - इतने में ही कौशल से डलिया उसके हाथ से छिन गई, और सामने ही व दूर फेंक दी गई, और बालक फुर्र हो गये । बुढ़िया चुपचाप अपनी डलिया उठाकर बड़बड़ाती हुई अपने स्थान को चली गई। इस तरह बालकों के सहारे वह बढ़िया रहती है । और कहीं उसका सहारा नहीं है। सब ओर टूट चुकी है, किसी भी प्रोर और हिलगा हुआ बन्धन शेष नहीं है। अब अपने हृदय के सारे तारों को इन बालकों में अटकाकर वह जी रही है । इनसे उलझ लेती है, हँस लेती है; उन्हें कोस लेती है, और प्यार कर लेती है। इन्हीं को लेकर प्राँसुओं के कड़वे घूट पी लेती है, इन्हीं से फिर अपने जी को हरा भी कर लेती है;वह बुढ़िया इसी भाँति जी लेती है। एक छोटी-सी कोठरी में रहती है। वहाँ पहले एक की गाय बँधती
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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