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________________ ६३ रुकिया बुढ़िया है। जल्दी-जल्दी फूल-परशाद के दोने लगाने लगती है । कहती है, 'माईजी, फूल-परशोद ले जाओ।" ___ और माई फूल-परशाद का दोना ले जाती हैं। कहती हैं, "रुकिया, अच्छी है ?" रुकिया प्रसाद का दूसरा दोना लगा रही होती है, आभार में, निक ऊपर देख सकुच रहती है, और दूसरा दोना दूसरी माई के हाथ में थमा देती है। वह इस समय बड़ी प्रसन्न हो जाती है। ये जो रोज प्रसादी ले जाती हैं, इनमें से वह किसके नाम नहीं जानती है, सबके ही जानती होगी। उनके बेटे-पोतों के बारे में भी थोड़ा-बहुत जानती है। कभी-कभी दोना देती हुई पूछती है, “प्रजी तुम्हारा नया मुन्ना तो अच्छा है ?" उत्तर मिलता, "बड़ा दंगा करने लगा है जी वह तो-" वह कहती, "भगवान बड़ी उमर दे।" इन इतनी जनियों के सुखों-दुखों में जानकारी और सहानुभूति रखकर उसे अपना अलग कुछ न रखने का अभाव बिसर जाता है। कहती जाती है-'माईजी परशाद ले जाओ, परशाद चढ़ायो,' और वह तत्परता के साथ परशाद के दोने देती जाती है। जिसके हाथ में जो होता है, डालती हुई अपने दोने सँभाले माई चलती चली जाती हैं । कोई पैसा डाल देती है, कोई आधी मुट्ठी गेहूँ डलिया के पास बिछे वस्त्र पर बिखेर देती है, कोई पस्स-भर जौ गिरा देती है, कोई मन्सूरी ताँबा फेंक जाती है । कोई-कोई पुण्यवती इकन्नी भी डाल जाती है । बुढ़िया सबको एक-सी प्रसन्नता और उद्यतता के साथ प्रसाद देती जाती है। बदले में उसे कौन क्या दिये जा रहा है, उसे बिलकुल ही ध्यान नहीं रहता। हाँ, इकन्नी गिरती है, तब उसे पता चले बिना नहीं रहता। सब छोड़, पहले वह उसे अपने सलूके के भीतर की जेब में रख लेती है। कोई बिना कुछ दिये ही चली जाती है। बुढ़िया नहीं जानती, सो नहीं; पर
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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