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________________ ४१ राजीव और भाभी लिए उपयुक्त मालूम होने लगे । किन्तु वह हाथ में रंग का लोटा लिये खड़ा ही रह गया, उत्तर में कुछ भी न कह सका। किन्तु लड़कियाँ ! माना, वे बला हैं; किन्तु दुनिया में क्या उनसे हारना होगा ? भाभी के आस-पास से ( क्योंकि भाभी की ध्वनि भी उनमें उसे चीन्ह पड़ती थी ) अपने पराजय पर खिलखिल हँसी जाती हुई सुनी, उन कलकंठिनियों की व्यंग की हँसी, मानो कि ललकार हो । उसने उसे डंक मार कर चेता दिया। अबला की ओर से सबल को चुनौती ?-तो अच्छा !... राजीव भी तब उसी भांति चौके को, दालान को, और छज्जे को लाँघता हुआ कुछ ही छलाँगों में जा चढ़ा जीने पर ! जीने के छोर पर पाया मार्ग अवरुद्ध और द्वार बन्द । उसने झटक कर द्वार खोला। किन्तु वे तो विरोध में कुछ स्वर करके भिड़े ही रह गए। इस पर उसके कानों पर बजी धारदार फिर भी संगीत-सी कोमल कई कण्ठों की कल-कल हँसी की ध्वनि ! . उसने कहा, "अच्छा भाभी, कभी तो उतरोगी।" कहकर थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा । फिर नीचे उतर पाकर छज्जे पर आ खड़ा हो गया । दो- क मिनट प्रतीक्षा में खड़े रहने पर उसने सुना, ऊपर लोहे के जाल पर झुकी भाभी कह रही हैं, "रंग डालोगे ?" "हाँ, डालूगा।" "तो मैं नहीं उतरूँगी।" "मत उतरो।" थोड़ी देर में भाभी ने कहा, "कब तक खड़े रहोगे ?" राजीव ने कहा, "और तुम कब तक वहाँ रहोगी ?" भाभी ने कहा, "अच्छी बात है !" राजीव ने भी कहा, "अच्छी बात है !"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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