SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग भागतीं, दालान पार करतीं, फैले सामान को फाँद, उस घर के छज्जे में से हो, जीने चढ़, हांफतीं और फलांगतीं, वह, जा पहुँची उस घर की छत पर । पहुँचकर झट अपने पीछे पट बन्द कर दिए और उन पर कुण्डी चढ़ा दी। फिर उस निर्जन तपती छत पर, अकेली, कड़ी घाम में, पत्थर पर साँस लेती हुई बैठ गई। उन्हें चैन पड़ा कि अब छकाया राजीव को। किन्तु इस चैन के पग-भर पीछे से उनके चित्त में आ बैठा उनकी स्थिति की विषमता का बोध, जो उनको समूचा ही मानो निगल जाने लगा । तब वह बड़ी ग्लानि और बड़ा त्रास भी अनुभव करने लगीं। भाभी भागीं तो हाथ में लोटा लिए पीछे-पीछे चला राजीव ! सामने पड़े वही बाबूजी। उन्होंने सात्विक झिड़की के साथ टोका, “यह क्या है, राजीव ?" राजीव बिना उस ओर ध्यान दिए आगे बढ़ा। बढ़ा, कि तभी ठिठक कर भी रह गया। आगे तो एक अपरिचित्त महिला ( बाबूजी की धर्मपत्नी ) अपने चौके में हैं ! उसके पैर जैसे बँधे रह गए। उस घर में और कई वयःप्राप्त लड़के-लड़कियाँ थीं। सबको इस नए ऊधम पर बड़ा कौतुक लग रहा था। कभी वे उन भाभी को देखते, जिनके लिए उनके मन में बड़ा सम्भ्रम था । वे तो आसपास सब लोगों के मनों में सेठानीजी के रूप में ही अंकित थीं, सम्भ्रान्त और आदरणीय। सब की निगाहों में वह तो अतिविशिष्ट ही थीं। तब फिर यह क्या है ? और कभी वे इस राजीव को देखते, इस निगाह से कि कुतूहल तो उन्हें है, पर जैसे वे जानना चाहते हैं कि यह है कौन आदमी ! बाबूजी ने कहा, “It is not decent, Sir." राजीव का मन भीतर-ही-भीतर उसे काट-काटकर कहने लगा, "It is abomina ble, Sir । इससे भी तीखे विशेषण उसे अपने
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy