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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] _____ इधर यह था, उधर बाबूजी ने भाई-साहब से कहा, "आपने बहुत ढील दे रखी है, लालाजी !" वास्तव में भाई-साहब में भाभीजी के प्रति अतीव प्रेम है। वह प्रेम आदर तक पहुँच गया है। घर की ओर से जो भाई-साहब सदा सर्वथा निश्शंक रहे हैं, यह सब भाभीजी के भरोसे ही तो। किन्तु वही उनकी पत्नी आदरास्पद से कुछ और हों, यहाँ तक कि लोगों के कौतुक और कुतूहल की विषय हों, यह एकदम उनके चित्त को दुर्विसह्य जान पड़ता है। और यह व्यक्ति, राजीव ! मोह, इस स्थल पर तो उन्हें अपनापति का-एवं पति नामक संस्था का अति दुस्सह असम्मान ही होता हुअा जान पड़ता है। प्रभुता के प्रति ऐसा अपराध ! स्त्री की अोर से ऐसी अवज्ञा, ऐसी अवगणना ! छि:-छि: ! भाई-साहब ने जोर से पूछा, "वह कहाँ है ?" बाबू ने पूछा, "कोन ?" 'कौन ?' एक ही प्रश्न में उसकी पत्नी के साथ कोई दूसरा भी आ सकता है, जिसे प्रश्न करके अलग छाँटना होगा-'कौन ?' इस बात पर . भाई-साहब को अतिरोष हुा । उन्होंने ज़ोर से कहा, "कौन क्या होता है, बाबू ?" बाबू इस प्रश्न पर असमन्जस में रह गए, और भाई-साहब धड़धड़ाते हुए आगे बढ़ गए । छज्जे पर पहुँचकर राजीव को देखकर दृढ़ स्वर में उन्होंने पूछा, "वह कहाँ है ?" "ऊपर हैं।" सब सन्नाटा था। मानो जो होनहार है, उसकी अब प्रतीक्षा ही करते बनेगी, और कुछ न हो सकेगा । और भाई-साहब ही वहाँ युगयुगानुमोदित पतित्व के स्वत्व-रक्षक की भाँति खड़े थे। -भाई-साहब ने ऊपर की ओर डपट के साथ कहा, "चलो, नीचे चलो।"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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